
ईश्वर ने कभी अवतार नहीं लिया बल्कि उसने मानव में से संदेष्टाओं द्वारा मानव का मार्गदर्शन किया
आज ईश्वर का नाम तो सब लेते हैं परंतू उसे पहचानते बहुत कम लोग हैं, तब ही तो आज हमने ईश्वर का बटवारा कर रखा है, क्या हमारा दिल नहीं कहता कि इस पूरे बृह्मांड का एक ही सृष्टा, स्वामी और पालनकर्ता है, लेकिन आज ऐसा क्यों है कि हम ऊपर वाले को भूल कर नीचे वालों को सब कुछ समझ बैठे हैं? इसी लिए ना कि हमारी यह धारणा बनी कि ईश्वर अवतार लेता है। हम जिनकी पूजा करते हैं वह ईश्वर के अवतार थे, इस लिए उनकी पूजा ईश्वर की पूजा है।
प्यारे भाई! हम आपकी भावनाओं का सम्मान करते हैं, लेकिन सच्चाई को समझना अति आवश्यक है, जब हम ने जान लिया कि ईश्वर यकता है, उसे किसी की जरूरत नहीं पड़ती, उसके पास माता पीता और संतान नहीं, और उसका कोई भागीदार नहीं। धरती और आकाश की सारी चीजों पर वही प्रभुत्व कर रहा है। तो आपको खुद विचार करना चाहिए कि क्या ऐसे महान ईश्वर के सम्बन्ध में यह कल्पना की जा सकती है कि जब वह इंसानों के मार्ग-दर्शन का संकल्प करे तो स्वयं ही अपने बनाए हुए किसी इंसान का वीर्य बन जाए, अपनी ही बनाई हुई किसी महिला के गर्भाशय की अंधेरी कोठरी में प्रवेश हो कर 9 महीना तक वहां क़ैद रहे और उत्पत्ति के विभिन्न चरणों से गुग़रता रहे, खून और गोश्त में मिल कर पलता बढ़ता रहे, फिर एस तंग स्थान से निकले, बाल्यावस्था से किशोरावस्था को पहुंचे, ज़रा दिल पर हाथ रख के मन से पूछिए कि क्या यह कल्पना ईश्वर की महिमा को तुच्छ सिद्ध नहीं करती, इससे उसके ईश्वरत्व में बट्टा न लगेगा?
एक दूसरे तरीक़े से सोचिए यदि आप से कोई कहे कि लंदन में हवा हवाई जहाज़ बन गई है तो ऐसा कहने वाले को आप तुरन्त मुर्ख और पागल कहेंगे क्योंकि हवा हवाई जहाज़ कदापि नहीं बन सकती, उसी प्रकार ईश्वर मनुष्य कभी नहीं बन सकता क्योंकि ईश्वर तथा मनुष्य के गुण भिन्न भिन्न हैं।
यदी कोई कहे कि ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है वह क्यों न मनुष्य का रूप धारण करे? तो इसका उत्तर यह है कि ऐसा कहना ईश्वर की महिमा को तुच्छ सिद्ध करना है। जो ईश्वर सम्पूर्ण संसार का सृष्टिकर्ता, स्वामी और शासक है, उसके संबंध में ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वह मानव का मार्गदर्शन करना चाहे तो मानव रूप धारण कर ले।
फिर जिन लोगों को ईश्वर का अवतार माना जाता है उनकी जीवनी पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि वे सभी इंसान थे, उन्हें खाने-पीने, सोने जागने की जरूरत पड़ती थी, यह कमजोरियों खुद गवाही देती हैं कि वह व्यक्ति थे? फिर उन महा-पुरुषों में से कुछ लोगों पर विभिन्न प्रकार के आरोप भी लगाए जाते हैं। क्षमा कीजिएगा यह बात मैं नहीं कहता बल्कि धार्मिक ग्रन्थों में ख़ुद वर्णित हैं, मैं तो कहता हूँ कि यह उन पर आरोप है, लेकिन अगर हम इसे सही मान भी लेते हैं तो प्रश्न यह उठता है कि क्या ईश्वर भी गलतियाँ करता है? हालांकि दोष-रहित है, अगर ईश्वर गलती करता तो पूरे संसार का नियम छण भर के लिए भी नहीं चल सकता था।
यह तो कुछ बौद्धिक तर्क रहे, जब हम धर्म की ओर पलटते हैं तब भी हमें पता चलता है कि अवतार की कल्पना स्वयं वेदों के भी खिलाफ है, बल्कि श्रीमद्भगवद्गीता साथ अध्याय सात श्लोक चौबीस में ऐसी आस्था रखने वालों को बुद्धि हीन की संज्ञा दी है:
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम।।24।।
“मैं अविनाशी, सर्वश्रेष्ठ औऱ सर्वशक्तिमान हूं। अपनी शक्ति से सम्पूर्ण संसार को चला रहा हूं, बुद्धिहीन लोग मुझे न जानने के कारण मनुष्य के समान शरीर धारण करने वाला मानते हैं।”
और ऋग्वेद के टीकाकार आशोराम आर्य ऋग्वेद के मंडल1 सुक्त7 मंत्र 10 पर टीका करते हुए कहते हैं- “जो मनुष्य अनेक ईश्वर अथवा उसके अवतार मानता है वह सब से बड़ा मुर्ख है।”
और यजुर्वेद 32/3 में इस प्रकार हैः
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महदयश।
“जिस प्रभु का बड़ा प्रसिद्ध यश है उसकी कोई प्रतिमा नहीं है।”
अवतार का सही अर्थः
अब आप पूछ सकते हैं कि जब ईश्वर मानव रूप धारण करके पृथ्वी पर नहीं आता तो अवतार की वास्तविकता क्या है ? अवतार का अर्थ क्या होता है ? तो लीजिए सर्वप्रथम अवतार का सही अर्थ जानिएः
श्री राम शर्मा जी कल्किपुराण के 278 पृष्ठ पर अवतार की परिभाषा यूं करते हैं-
” समाज की गिरी हुई दशा में उन्नति की ओर ले जाने वाला महामानव नेता।”
अर्थात् मानव में से महान नेता जिनको ईश्वर मानव मार्गदर्शन हेतु चुनता है। उसी प्रकार डा. एम. ए. श्री वास्तव अपनी पुस्तक “हज़रत मुहम्मद और भारतीय धर्म ग्रन्थ” पृष्ठ 5 में लिखते हैं-
” अवतार का अर्थ यह कदापि नहीं है कि ईश्वर स्वयं धरती पर सशरीर आता है, बल्कि सच्चाई यह है कि वह अपने पैग़म्बर और अवतार भेजता है। “
ज्ञात यह हुआ कि ईश्वर की ओर से ईश-ज्ञान लाने वाला मनुष्य ही होता है जिसे संस्कृत में अवतार, अंग्रेज़ी में प्राफ़ेट और अरबी में रसूल (संदेष्टा) कहते हैं।
इस्लामी दृष्टिकोणः
ईश्वर ने मानव मार्गदर्शन हेतु हर देश और हर युग में अनुमानतः 1,24000 ज्ञानियों को भेजा। पुराने ज़माने में उन ज्ञानियों का श्रृषि कहा जाता था। क़ुरआन उन्हें धर्म प्रचारक, रसूल, नबी अथवा पैग़म्बर कहता है। उन सारे संदेष्टाओं का संदेश यही रहा कि एक ईश्वर की पूजा की जाए तथा किसी अन्य की पूजा से बचा जाए। वे सामान्य मनुष्य होते थे, पर उच्च वंश तथा ऊंचे आचरण के होते थे, उनकी जीवनी पवित्र तथा शुद्ध होती थी। उनके पास ईश्वर का संदेश आकाशीय दुतों (angels) द्वारा आता था। तथा उनको प्रमाण के रूप में चमत्कारियाँ भी दी जाती थीं ताकि लोगों को उनकी बात पर विश्वास हो। जैसे संदेष्टा ईसा (ईश्वर की उन पर शान्ति हो) पैदाइशी अंधे की आँख पर हाथ फेरते तो ईश्वर की अनुमति से उसकी आँख ठीक हो जाती थी, मृतकों के शरीर पर हाथ रखते तो ईश्वर की अनुमति से वे जीवित हो जाते थे। संदेष्टा मूसा (ईश्वर की उन पर शान्ति हो) ने लाठी फेंका तो सांप का रूप धारण कर लिया, समुद्र में लाठी मारी तो बीच समुद्र के बीच रास्ते बन गए।
लोग विभिन्न धर्मों में कैसे बटे? जब इनसानों ने उनमें यह असाधारण गुण देख कर उन पर श्रृद्धा भरी नज़र डाला तो किसी समूह नें उन्हें भगवान बना लिया, किसी ने अवतार का सिद्धांत गढ़ लिया, जब कि किसी ने समझ लिया कि वह ईश्वर के पुत्र हैं हालांकि उन्होंने उसी के खण्डन और विरोध में अपना पूरा जीवन बिताया था।
अन्तिम संदेशः
इस प्रकार हर युग में संदेष्टा आते रहे और लोग अपने स्वार्थ के लिए इनकी शिक्षाओं में परिवर्तन करते रहे। ईश्वर जो सम्पूर्ण संसार का स्वामी था उसकी इच्छा तो यह थी कि सारे मनुष्य के लिए एक ही संविधान हो, सारे लोगों को एक ईश्वर, एक संदेष्टा, तथा एक ग्रन्थ पर एकत्र कर दिया जाए परन्तु आरम्भ में ऐसा करना कठिन था क्योंकि लोग अलग अलग जातियों में बटे हुए थे, उनकी भाषायें अलग अलग थीं, एक दूसरे से मेल-मिलाप नहीं था, एक देश का दूसरे देश से सम्पर्क भी नहीं था। यातायात के साधन भी नहीं थे, और मानव बुद्धि भी सीमित थी। यहाँ तक कि जब सातवीं शताब्दी ईसवी में सामाजिक, भौतिक और सांसकृतिक उन्नति ने सम्पूर्ण जगत को एकाई बना दिया तो ईश्वर ने हर देश में अलग अलग संदेष्टा भेजने का क्रम बन्द करते हुए संसार के मध्य अरब के शहर मक्का में महामान्य हज़रत मुहम्मद ( ईश्वर की उन पर शान्ति हो) को संदेष्टा बनाया और उन पर ईश्वरीय संविधान के रूप में क़ुरआन का अवतरण किया। वह जगत-गुरू थे, समपूर्ण संसार के कल्यान के लिए आए थे इसी लिए उनके आने की भविष्यवाणी प्रत्येक धार्मिक ग्रन्थों ने की थी, वही नराशंस तथा कल्कि अवतार हैं जिनकी आज हिन्दू समाज में प्रतीक्षा हो रही है। उनको किसी जाति तथा वंश के लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण संसार के लिए भेजा गया।
इन व्याख्याओं से यह सिद्ध हो गया कि ईश्वर ने कभी अवतार नहीं लिया बल्कि उसने मानव में से संदेष्टाओं द्वारा मानव का मार्गदर्शन किया परन्तु मानव नें उनके चमत्कारों से प्रभावित हो कर उन्हीं को ईश्वर का रूप दे लिया और “ऊपर वाले ईश्वर” को भूल कर उन्हीं की पूजा करने लगे। इस प्रकार मानव के नाम से अलग अलग धर्म बन गया। हालाँकि ईश्वर का अवतरित किया हुआ धर्म शुरू से एक ही रहा और आज तक एक ही है। उसी को हम “इस्लाम” कहते हैं जिसे प्रत्येक संदेष्टा अपनी अपनी भाषा में उसका अनुवाद कर के बयान करते रहे। आज आवश्यतका है इसी सत्य को जानने की। हम सब पर ईश्वर की दया हो।