
इबादतें सहानुभूति, नयाय, प्रतिज्ञापालन, सच्चाई, दयालुता, पारस्परिक सम्बंध, स्वार्थ त्याग और अन्य अच्छे आचरण पर उभारती हैं।
जब हम घर बनाते हैं तो उसमें बहुत से स्तंभ की आवश्यकता होती है। बिना स्तंभ के घर ठोस और मज़बूत नहीं बन सकता, बिल्कुल वैसे ही इस्लाम एक घर के समान है जिसके मुख्य पाँच स्तंभ हैं।
इब्ने उमर बयान करते हैं कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहाः
“इस्लाम की नींव पाँच चीज़ों पर आधारित है, इस बात की गवाही देना कि अल्लाह के अलावा कोई सत्य पूजा योग्य नहीं और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के संदेष्टा हैं। नमाज़ स्थापित करना, ज़कात देना, रोज़े रखना और हज करना।” (बुख़ारीः 8 मुस्लिमः 16)
पहला स्तंभः
पहला स्तंभ वह वाक्य है जिसे बोल कर एक व्यक्ति मुसलमान बनता है। मुसलमान बनने के लिए मांस खाने की जरूरत नहीं, न अपने शरीर में कोई परिवर्तन लाने की जरूरत है, बस दिल से इस वाक्य की गवाही देने की आवश्यकता होती हैः अश्हदु अल्ला इलाहा इल्लल्लाहु व अश्हदु अन्न मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह। इसे बोल कर कोई भी व्यक्ति मुसलमान बन सकता है। इस में एक व्यक्ति दो बातों की गवाही देता है: इबादत किसकी? और इबादत किस प्रकार? इस लिए वह कहता है कि आज मैं मात्र एक अल्लाह की उपासना करूंगा, और मेरी यह उपासना अन्तिम सन्देष्टा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बताए हुए नियमानुसार होगी। यह इस्लाम का पहला स्तंभ है जिसकी गवाही देकर एक व्यक्ति इस्लाम के घर में प्रवेश करता है।
अब उसने अपने इस बोल में जो वादा किया था उसे व्यवहारिक रूप देने के लिए शेष चार काम करता है, नमाज़ पढ़ता है, ज़कात अर्थात अनिवार्य दान देता है, रमजान में एक महीने का रोज़ा रखता है, और यदि आर्थिक सामर्थ्य प्राप्त है तो जीवन में एक बार काबा का दर्शन करता है। यह इबादतें अलल-टप नहीं हैं बल्कि उनका हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। ऊपर वाले से आपका कनेक्ट जितना अच्छा होगा उतना ही आप मानव के लिए अच्छे होंगे।
दूसरा स्तंभ
इस्लाम का दूसरा स्तंभ नमाज़ है, जो हर मुसलमान हर दिन और रात में पाँच बार अनिवार्य है। यह नमाज़ मात्र एक अल्लाह के लिए अदा की जाती है। इसका व्यक्तिगत लाभ एक नमाज़ी को यह मिलता है कि वह स्वच्छ और शुद्ध होकर, अपने प्रभु से डाइरेक्ट सम्पर्क करता है, उसके सामने खड़ा होता है, बैठता है, झुकता है, भूमि पर सिर टेकता है और अपने सेवक और दास होने को स्वीकार करता है। ऐसा करके उसे अजीब तरह की शांति मिलती है, क्योंकि उसका सम्पर्क अपने ऊपर वाले सृष्टा, स्वामी और प्रभू से डाइरेक्ट हो रहा होता है। उसी तरह नमाज़ एक इंसान में उत्तम आचरण पैदा करती है, और बुरे आचरण और अश्लीलता से दूर रखती है, कुरआन ने कहाः
وَأَقِمِ الصَّلَاةَ ۖ إِنَّ الصَّلَاةَ تَنْهَىٰ عَنِ الْفَحْشَاءِ وَالْمُنكَرِ ۗ – سورة العنكبوت: 45
और नमाज़ का आयोजन करो। निस्संदेह नमाज़ अश्लीलता और बुराई से रोकती है।
नमाज़ का सामूहिक लाभ यह मिलता है कि मोहल्ले के सारे लोग पाँच बार मस्जिद में एकत्र होते हैं, एक दूसरे का समाचार जानते हैं, इस से उन में पारस्परिक सहानुभूती पैदा होती है, और यह भावना जागती है कि हम सब भाई-भाई हैं। फिर जब नमाज़ में सब लोग एक साथ मिलकर खड़े होते हैं तो यहां बड़े और छोटे, धनवान और निर्धन, उच और निम्न का अंतर पूरी तरह मिट जाता है।
तीसरा स्तंभः
इस्लाम का तीसरा स्तंभ ज़कात है, अर्थात अनिवार्य-दान, ज़कात धनवानों पर अनिवार्य होती है, समाज के निर्धनों के लिए। क्या यह न्याय है कि ऊपर वाले ने आपको धन सम्पत्ति दी है तो आप अपने धन पर नाग बनकर बैठ जाएं और अपने पड़ोस में एक आदमी सूखी रोटी को भी तरसता रहे, इस्लाम ऐसी स्वार्थ-प्रीता का शत्रु है। इस्लाम कहता है कि अगर तुम्हारा माल इस्लाम की निश्चित सीमा तक पहुँच जाता है तो इसमें गरीबों के लिए एक सीमित मात्रा में निकालो, ताकि गरीबों का भी पेट भर सके, उन्हें भी शरीफ़ाना जीवन मिल सके। जब ज़कात का नियम सही ढंग से लागू होता है तो समाज से गरीबी मिटती है, समाज में चोरी नहीं होती, डकैती नहीं होती, समाज शांति से परिपूर्ण हो जाता है।
चौथा स्तंभः
इस्लाम का चौथा स्तंभ रमज़ान का रोज़ा है जो वर्ष में एक महीने तक पूरे रमजान का रखा जाता है। इस स्थिति में एक व्यक्ति एकांत में होता है, उसे सख्त भूख और प्यास लगी होती है। लेकिन एक कौर दाना या एक बूंद पानी भी मुंह में नहीं डालता। इस लिए कि उसे यह एहसास होता है कि कोई तो नहीं देख रहा है लेकिन अल्लाह यहाँ भी हमारी निगरानी कर रहा है। एक महीने के इस प्रशिक्षण से वह यह शिक्षा ग्रहण करता है कि चाहे कुछ भी हो वह कोई बुरा काम नहीं कर सकता, क्योंकि हर समय उसकी निगरानी हो रही है।
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय का एक प्रोफेसर डॉ. मोर पाल्ड कहता है:
“मैंने इस्लाम का अध्ययन किया, जब मैं रोज़े के आदेश पर पहुंचा तो दंग रह गया कि इस्लाम ने अपने मानने वाले को इतना अच्छा फार्मूला दिया है, अगर इस्लाम ने मुसलमानों को केवल यही फॉर्मूला दिया होता तो यह उनकी सफलता के लिए पर्याप्त था।”
पांचवां स्तंभः
इस्लाम का पांचवां और अंतिम स्तंभ हज है। हज केवल मालदारों पर अनिवार्य होता है। और वह भी जीवन में एक बार। हज के लिए दुनिया के हर कोने से लोग मक्का आते हैं। उनका रंग अलग, उनकी भाषाएँ अलग, उनके कपड़े अलग, लेकिन मक्का में सभी एक वर्दी में आ जाते हैं, उनकी ज़बान पर एक ही बोल होती है, एक ही इमाम के पीछे नमाज़ें पढ़ते हैं, जहां जाना होता है एक साथ जाते हैं, जहां ठहरना होता है एक साथ ठहरते हैं। इस तरह उनके बीच हर तरह का भेदभाव समाप्त हो जाता है और विश्व व्यापी भाईचारा का प्रदर्शन होता है।
अमेरिका में अफ्रीकी नस्ल के लोगों का प्रसिद्ध लिडर मेल्कम एक्स मुसलमान होने के बाद जब हज को गया और उसने यह विश्वव्यापी भाईचारा देखा तो बोल उठा: “यह है रंग और वंश की समस्याओं का समाधान”।
हमारी बात का सारांश यह है कि इस्लाम के यह पांच सतंभ अलल-टप नहीं हैं बल्कि यह एक इंसान को अंदर से चेंज कर के रख देते हैं, उसके जीवन में क्रांति आ जाती है, अब वह समाज, देश और मानवता के हित के लिए काम करता है और समाज में शांति-दूत बनकर जीता है। वह बुनयाद जिस पर दास और रब के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है वह कल्मा शहादत “लाइलाह इल्ल-ल्लाह” है। अपने रब का सच्चा दास वही है जो अपने जीवन की हर स्थिति में अल्लाह की ओर लपके, उसी पर भरोसा करे, उसी का डर रखे और उसी के नियम को स्थापित करने में प्रयत्नशील रहे। फिर इबादतें आत्मा को शुद्ध एवं उजव्वल करती हैं, हर स्थिति में अल्लाह की निगरानी का अनुभव इंसान को इस योग्य बनाता है कि वह बुराइयों से रुक जाए और नेक कामों की अदाएगी में जल्दी करे जिससे समाज में शान्ति का वातावरण बनता है।
बल्कि इबादतें सहानुभूति, नयाय, प्रतिज्ञापालन, सच्चाई, दयालुता, पारस्परिक सम्बंध, स्वार्थ त्याग और अन्य अच्छे आचरण पर उभारती हैं। अतः जब इंसान का संबंध अपने रब के साथ ठोस हो जाता है तो एक व्यक्ति और समाज के बीच संबंध का एक विशाल द्वार खुल जाता है, और इस संबंध को स्थापित करने में मूल भूमिका अल्लाह की इबादत और एकेश्वरवाद की होती है।