
शरीर को सुरक्षित रखने के लिए हाथ को काट कर शरीर से उसे अलग कर देना क्या क्रूरता है?
अपराध ऐसा कैंसर है कि इसके कारण पृथ्वी की स्थिति चेंज होने लगती है, लेकिन इस्लाम अपराध का इंतजार नहीं करता कि अपराध होने के बाद उसका इलाज किया जाए बल्कि ऐसी शिक्षायें देता है कि समाज में अपराध पैदा ही न हो सके। परन्तु क्या उपदेश सब को सुधारने के लिए पर्याप्त हैं? नहीं, समाज में कुछ बीमार स्वभाव के लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें सज़ा की जरूरत होती है। इसी लिए इस्लाम ने दंड के आदेश जारी किए। लेकिन सवाल यह है कि यह सज़ा कौन तय करेगा? सज़ा तय करने का अधिकार उसी को होना चाहिए जिसकी नज़र में सारे इंसान बराबर हैं, लेकिन संसार में कोई मनुष्य ऐसा नहीं जो बेलाग, निष्पक्ष, निःस्वार्थ और मानव दुर्बलताओं से उच्चतर हो, इसी लिए उपयुक्त और उचित कानून उसी का हो सकता है जिस ने इस ब्रह्मांड को सजाया है। क्योंकि सृष्टा ही सृष्टि के हित को बेहतर समझ सकता है। क़ुरआन ने कहाः “क्या वह नहीं जानेगा जिसने पैदा किया? वह सूक्ष्मदर्शी, ख़बर रखनेवाला है।” (सूरः अल-मुल्कः14)
इस्लाम ने जिन अपराधों की सज़ा तय की है वे हैं, हत्या, शराब पीना, व्यभिचार करना, किसी पर व्यभिचार का आरोप लगाना, चोरी करना और धरती में फ़साद मचाना, आदि। लेकिन याद रखें इस्लाम अपराध का रास्ता नहीं खोलता बल्कि अपराध करने से पहले उन मार्गों को बंद कर देता है जो व्यक्ति को अपराध तक पहुंचा सकते हों। यानी उन कामों पर रोक लगा देता है जो अपराध की ओर ले जाते हैं।
उदाहरण के रूप में इस्लाम ने हत्या की सजा तय की, तो इंसानी जान का महत्व बयान कर दी, और कहा कि किसी एक व्यक्ति की अनुचित हत्या सारी मानवता की हत्या है। और कहा कि किसी मोमिन की हत्या पर अगर आकाश और धरती वाले सभी प्रतिभागी हो जाएं तो अल्लाह उन सब को नरक में धकेल देगा।
उसी तरह इस्लाम ने व्यभिचार की सजा तय की तो व्यभिचार तक पहुंचाने वाले कार्यों पर भी रोक लगा दी, अतः इस्लाम ने महिला और पुरुष दोनों को नजरें नीची रखने का आदेश दिया है, महिलाओं के लिए विशेष आदेश यह दिया गया कि वे पर्दे का पूरा ध्यान रखें, किसी अजनबी आदमी से बात करते समय स्वर में लचीलापन न हो बल्कि रुखापन पाया जाए, फिर इस्लाम ने शादी करने पर उभारा।
उसी तरह इस्लाम ने चोरी की सज़ा तय की तो उस से पहले गरीबों की सहायता का आदेश दिया, मालदारों के मालों में गरीबों का अधिकार रखा, यहां तक कि यह शिक्षा दी कि अगर किसी ने भूख से मजबूर होकर चोरी की है तो उसे सजा नहीं मिलेगी।
उसी तरह इस्लाम ने किसी पवित्र महेला पर व्यभिचार का आरोप लगाने की सजा तय की तो उससे पहले दोष को छिपाने पर उभारा और उसका महत्व बयान किया।
उसी तरह इस्लाम ने शराब पीने की सज़ा तय की तो उससे पहले बुद्धि की सुरक्षा पर बल दिया और हर उस काम को हराम ठहराया जो मानव बुद्धि को प्रभावित करे, और इस संबंध में नियम यह बयान किया कि “जो चीज़ अधिक मात्रा में नशा लाए उसकी कम मात्रा भी हराम है।”
लेकिन इसके बावजूद अगर कोई अपराध करता है तो उसके लिए सख्त से सख्त सज़ा तय की गई है, अतः यदि किसी ने व्यभिचार किया और व्यभिचारी पुरुष और महिला विवाहित हों तो उनके लिए सजा तय की गई कि उन्हें पत्थर से मार मार कर नष्ट कर दिया जाएगा, और यदि अविवाहित हों तो 100 कोड़े मारे जाएंगे और एक साल के लिए देश निकाला दिया जाए।
अगर किसी ने नाहक़ किसी की हत्या कर दी तो इस्लाम ने उसकी सजा तय की कि उसे भी उसके बदले क़त्ल कर दिया जाएगा। अगर किसी ने शराब पी और उसका मामला कोर्ट में गया तो उसे भी 80 कोड़े मारे जाएंगे। अगर किसी ने निर्दोष पुरुष या महिला पर व्यभिचार का आरोप लगाया और चार गवाह न पेश कर सके तो इज़्ज़त की सुरक्षा के लिए इस्लाम ने आदेश दिया कि आरोप लगाने वालों को 80 कोड़े मारे जायें। यदि किसी ने किसी का माल चोरी कर लिया तो जिसकी अनुमानतः 100 डालर कीमत बनती हो तो इस्लाम ने यह सजा सुनाई कि उसका हाथ काट दिया जाए ताकि इस बुरी आदत से समाज को पाक साफ रखा जा सके।
अगर किसी ने ज़मीन में फसाद मचाया और ख़ूनख़राबा किया तो इस्लाम ने उसकी सज़ा यह तय की कि उसके अपराध के हिसाब से या तो उसे क़त्ल कर दिया जाए या सूली पर लटका दिया जाए या विपरीत दिशा से उनके हाथ पांव काट दिए जाएं या उन्हें निर्वासित कर दिया जाए, जैसा अपराध वैसी सजा।
और जब अपराधी को सज़ा दी जा रही हो तो आदेश यह दिया गया कि उसे बंद कमरे में नहीं बल्कि एक बड़ी जमाअत के सामने सज़ा दी जाए ताकि लोगों को सबक़ और पाठ मिले और बाद में किसी को ऐसी शर्मनाक हरकत करने का साहस न हो सके।
कुछ लोग अज्ञानता के कारण इस्लामी दंड पर आपत्ति करते हैं, और सोचते हैं कि आज के सांकृतिक युग में यह कानून बहुत सख्त है। जब कि कुरआन ने कहाः
وَلَکُم فِی القِصَاصِ حَیَاة یَا اولِی الاَلبَابِ – سورة البقرة: 179
“क़िसास में (तुम्हारे लिए) जीवन है, हे बुद्धिजीवियो”। – सूरः बक़राः179
इस आयत में संबोधित किया गया है बुद्धि रखने वालों को और उनसे कहा गया है कि जान के बदले में एक दूसरी जान तो जा रही है लेकिन एक और जान को सज़ा देकर हजारों जानों को बचाया जाता है। क्योंकि दूसरे लोग जब देखेंगे कि हत्या करने की वजह से उसे भी क़त्ल कर दिया गया है तो वे किसी को मारने की हिम्मत नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार अपराधी को सज़ा देना अपराधी पर जुल्म करना नहीं बल्कि अपराध की रोकथाम करना और उस पर लगाम कसना है।
जो लोग कहते हैं कि इस्लामी सज़ायें सख़्ती पर आधारित हैं उनसे हम पूछना चाहते हैं कि हमें बताया जाए एक आदमी जिसके हाथ में ऐसा घाव हो गया हो कि डर है कि वह पूरे शरीर में फैल जाए, ऐसी हालत में शरीर को सुरक्षित रखने के लिए हाथ को काट कर शरीर से उसे अलग कर देना क्या सख्ती है? बुद्धि लगाइए बात समझ में आ जाएगी।